१२ जून, १९५७

 

 ''वास्तवमें यह संभव ह कि बहुत लंबे समयतक उपवास करते हुए भी अंतरात्मा, मन और प्राणकी, यहांतक कि शरीरकी भी शक्तियों और क्रियाओंको बनाये रखा जाय, या गहन और दिन-रात लेखन-कार्यमें रत रहा जाय, बिलकुल भी सोया न जाय, दिनमें आठ-आठ घंटे टहला जाय, इन सब क्यिाओंको अलग-अलग या एक साथ जारी रखा जाय और फिर भी शक्तिकी कोई कमी, कोई थकान, किसी प्रकारकी कमजोरी या हास महसूस न हो । उपवासकी समाप्तिपर व्यक्ति तुरत अपनी सामान्य खुराकसे शुरू कर सकता है, यहांतक कि चिकित्सा-शास्त्रकी बतायी हुई बीचकी सावधानी- के बिना सामान्यसे अधिक खुराक ले सकता है । मानों ये दोनों अवस्थाएं, पूर्ण उपवास और भरपूर भोजन, उस शरीरके लिये, जिसने एक प्रकारके प्रारंभिक रूपांतरके द्वारा योगकी शक्तियों और क्रियाओंका यंत्र होना सीख लिया हो, ऐसी स्वा- भाविक अवस्थाएं हों कि अदल-बदलकर एकसे दूसरीमें तुरत और आसानीसे जाया जा सकता है । परंतु एक चीजसे मनुष्य नहीं बच पाता, और वह है शरीरके स्थूल तंतुओंका, उसके मांस और जड-पदार्थका हास । विचार-दृष्टिसे ऐसा लगता है कि बस इसका कोई क्रियात्मक तरीका और साधन हाथ आ जाय तो यह अंतिम अजेय बाधा भी पार की जा सकती है और शरीरकी शक्तियोंका स्थूल प्रकृतिकी शक्तियोंके साथ आदान-प्रदान करके अर्थात्, ब्यक्तिसे प्रकृतिको उसको आवश्यकता देकर और उसके वैश्व भावसे उसकी पोषक शक्तियोंको सीधा लेकर शरीरको वशमें रखा जा सकता है । विचार-दृष्टिसे ऐसा भी लगता है कि अपने पोषण और नवीकरणके साधनोंको अपने परिपार्श्वसे जुटानेकी जिस क्षमताको हम जीवन-विकासके मूलमें देखते है, उसी क्षमताको व्यक्ति इस विकासके शिखरपर पहुंचकर फिरसे खोज सकता और प्रस्थापित कर सकता है, या नहीं तो विकासको पहुंचा हुआ वह व्यक्ति ऐसी महत्तर शक्ति भी प्राप्त कर सकता है कि

 

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वह उन साधनोंको नीचेसे या परिपार्श्वसे ग्रहण करनेके बदले ऊपरसे ग्रहण कर ले ।',

 

(अतिमानसिक अभिव्यक्ति)

 

 श्रीअरविदने लंबे उपवासमें भी अपनी सभी क्रियाओंको बनाये रखनेकी जिस संभावनाके यहां उल्लेख किया है वह उनके अपने ही अनुभवका वर्णन है!

 

          वह एक संभावनाकी बात नहीं कर रहे, वरन् एक ऐसी बात कह रहे हैं जिसे उन्होंनें स्वयं किया है । पर यह मोचना एक भरिा भूल होगी कि इस अनुभवके बाह्य रूपकी नकल की जा सकती है । संकल्प-शक्तिके जोरसे यदि व्यक्ति इसमें सफल हों भी जाय तो भी वह अनुभव आध्या- त्मिक दृष्टिसे पूर्णतया असफल रहेगा जबतक कि उससे पहले चेतनामें ही परिवर्तन न हो जाय, और यह प्राथमिक मुक्ति होगी ।

 

         भोजनका त्याग करने-भरसे तुम आध्यात्मिक उन्नति नही कर सकते । तुम केवल स्वतंत्र होकर ही ऐसा कर सकते हो, न केवल भोजनके प्रति समस्त आसक्ति, इच्छा ओर चितनसे बल्कि समस्त आवश्यकतासे भी मुक्त होकर, अर्थात्, ऐसी अवस्थामें पहुंचकर जहां ये चीजे तुम्हारी चेतनाके लिये इतनी परायी हो जाती है कि इनके लिये वहां कोई स्थान ही नही रहता । उस अवस्थामें ही व्यक्ति एक सहज और स्वाभाविक परिणामके तोरपर, उपयोगी रूपमें, रवाना छोड़ सकता है । कहा जा सकता है कि इसकी अनिवार्य शर्त है रवाना ही भूल जाना -- इसलिये भूल जाना क्योंकि सत्ताकी समस्त शक्तियां और समस्त एकाग्रता एक अधिक संपूर्ण और अधिक सच्ची आंतरिक उपलव्धिपर लगी होती है, उस सतत अत्यावश्यक तन्मयता- मे लगी होती है कि सारी सत्ताका, शरीरके कोषोंतकका भी, दिव्य शक्तियों- के साथ मिलन स्थापित हा जाय, ताकि यही सच्चा जीवन हों, न केवल यह जीवनके अस्तित्वका हेतु हों बल्कि जीवनका सार यही हो, न केवल यह जीवनकी एक अनिवार्य आवश्यकता हों, बल्कि जीवनका समस्त आनन्द ओर इसके अस्तित्वका समस्त हेतु भी यही हा ।

 

       जब ऐसी अवस्था आ जाती है, जब यह उपलब्धि प्राप्त हों जाती है तो रवाना, न खाना, सोना, न सोना इस सबका कुछ महत्व नही रहता । यह एक बाह्य 'लय' होती है जो उन वैश्व शक्तियोकी क्रीडापर छोड़ दी जाती है जो तुम्हारे चारों ओरकी परिस्थितियों और मनुप्योंद्वारा अपने- आपको अभिव्यक्त करती है, और तब शरीर, आंतरिक सत्यके साग संपूर्णत एक होनेके कारण नमनीय तथा सतत अनुक्लताकी क्षमता लिये होता है ।

 

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यदि भोजन हों तो रवा लेता है, न हों तो उस बारेमें सोचता मी नहीं । अगर नींद आये तो सों लेता है, वरना सोचता मी नहीं और यही बात दूसरी सब चीजोंके साथ होती है... । जीवन यह सब नही है! ये जीवनके, बस, ढंग है । मनुष्य बिना सोचे-विचारे अपने-आपको इनके अनु- कूल बना लेता है । यह खिलनेकी-सी भावना प्रदान करता है, जैसे पौधे- पर एक फल खिलता है; यह एक ऐसी क्रिया है जो संकल्प-शक्तिके जोर- से नही होती, फिर भी परिपार्श्वकी शक्तियोंके साथ पूरी तरह सुसमंजस होती है । जीवनका ढंग भी ऐसा हों जाता है कि वह प्राप्त परिस्थिति- के साथ पूरी अनुहार_?_लतामे होता है पर वे चीज़ें अपने-आपमें उसके लिये कुछ महत्व नही. रखती ।

 

        फिर एक ऐसा समय आता है जब, सब चीजोंसे मुक्त होनेके कारण, व्यक्तिको क्रियात्मक रूपसे किसी चीजकी जरूरत नहीं होती । वह हर चीजका उपयोग कर सकता है, सब कर्म कर सकता है पर उसकी चेतना- पर इनका कोई वास्तविक प्रभाव नही पड़ता । सचमुच इसी स्थितिका महत्व है । बाह्य रूपोंका या उच्चतर जीवनकी अभीप्सा करनेवाली मान- सिक चेतनाके मनमाने निश्चयोंका अनुसरण करना एक साधन हों सकता है पर वह विशेष प्रभावकारी नहीं होता, फिर भी व्यक्तिको एक तरहसे याद दिनेश सकता है कि जीवन अपनी पशुतामें अभी जैसा है उससे भिन्न होना चाहिये -- परन्तु यह वह (अभीप्सित) चीज नहीं है, वह चीज बिल- कुल भी नहीं है । जो व्यक्ति अपनी आंतरिक अभीप्सामें पूरी तरह तल्लीन है, इस हदतक कि वह इन बाह्य चीजोंके बारेमें कुछ सोचता ही नहीं, इनकी कुछ परवाह नही करता, जो आ जाय उसे स्वीकार कर लेता है और न आये तो उधर ध्यान भी नहीं देता, ऐसा न्यक्ति उस व्यक्तिसे मार्गपर कहीं अधिक आगे बन्द हुआ होता है जो कठोर तापस नियमोंको अपनानेके लिये अपनेको इस भावसे बाध्य करता है कि ये उसे उपलब्धिकी ओर लें जायेंगे ।

 

       एकमात्र चीज जो सचमुच प्रभावकारी है वह है चेतनाका परिवर्तन, अतिमानसिक शक्तियोंके स्पन्दनके साथ घनिष्ठ, सतत, पूर्ण एवं अपरिहार्य रूपमें एकत्व पा लेनेके द्वारा मिलनेवाली आंतरिक मुक्ति, उधर ही प्रति- क्षणकी व्यस्तता, सत्ताके सभी तत्त्वोंके- संकल्प, संपूर्ण सताकी, शरीरके सभी कोषोतककी भी, अभीप्सा -- यह है अतिमानसिक शक्तियों व दिव्य शक्तियों- के साथ मिलन । और तब इस ओर ध्यान देनेकी कोई जरूरत नहीं रह जाती कि परिणाम क्या होंगे । वैश्व शक्तियोंकी क्रीड़ा और अभि- ब्यक्तिमें जो होना है वह बिलकुल स्वाभाविक और सहज रूपमें स्वतः ही

 

होगा, इस ओर अपना मन लगानेकी जरूरत नहीं रहती । एकमात्र चीज जिसका महत्व होता है वह है 'शक्ति', 'ज्योति', 'सत्य', 'बल' और अति- मानसिक चेतनाके अवर्णनीय आनन्दके साथ सतत, सर्वांगीण और पूर्ण संपर्क -- सतत, हां, सतत संपर्क ।

 

         यह है सच्चाई । बाकी सब तो नकल है, एक प्रहमन-सा है जिसे मनुष्य अपने-आपसे खेलता है ।

 

        पूर्ण पवित्रताका अर्थ है होना, निरन्तर अधिकाधिक पूर्ण संभूतिके अंदर 'होना' । व्यक्तिको कभी दावा नही करना चाहिये कि वह ऐसा है : उसे सहज-स्वाभाविक रूपमें वैसा होना चाहिये ।

 

        इसीका नाम सच्चाई है ।

 

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